राजस्थान की होली: लट्ठमार, गोला बारूद, कपड़ाफाड़, और पत्थरमार होली की अनोखी कहानियां!
हमारा रंग रंगीला राजस्थान कला, संस्कृति और गौरवमयी इतिहास के साथ ही रंगोत्सव होली के लिए भी बहुत प्रसिद्ध है। भारत की यह सांस्कृतिक धरा हर क्षेत्र में समृद्ध है। यहां के हर रंग लोक परम्परा की कहानी बयां करते हैं। यहां की धरोहर, लोक कलाएं, परम्पराएं और रीति रिवाज इसे अन्य राज्यों से अलग बनाते हैं।
धोरों की धरती राजस्थान में हर त्यौहार बड़े ही धूमधाम और रीति रिवाज के साथ मनाया जाता है। जब बात रंगों के त्यौहार होली की हो, तो भला राजस्थान कहां पीछे रहने वाला। राजस्थान को रंग रंगीला राजस्थान कहा जाता है। ऐसे में होली का त्यौहार यहां पर कितने धूमधाम और निराले अंदाज में मनाया जाता होगा, इसका अनुमान हम खुद लगा सकते है।
यहां पर होली मनाने की कहानियां अपने आप में अनोखी हैं। रंग रंगीले राजस्थान के किसी हिस्से में फूलों से होली खेली जाती है, तो कहीं बारूद की होली खूब प्रसिद्ध है। कहीं दूध दही से होली खेली जाती है, तो कहीं होली पर अंगारों पर चलने की परंपरा है, तो कहीं होली पर एक दूसरे को पत्थर बरसाएं जाते हैं।
इस आर्टिकल में हम आपको राजस्थान के अलग अलग हिस्सों से होली की ऐसी ही कहानियों को बताएंगे, जिसे देखने देश और दुनियां भर से लोग शामिल होते हैं।
1.भरतपुर और करौली की लट्ठमार होली
उत्तर प्रदेश के मथुरा से सटे होने और ब्रज क्षेत्र में आने के कारण, भरतपुर और करौली में भी नंदगांव और बरसाना की तरह यहां लट्ठमार होली खेली जाती है, जोकि काफी प्रसिद्ध है। इस लट्ठमार होली को राधा-कृष्ण के प्रेम से जोड़ा जाता है। पुरुष जब महिलाओं पर रंग डालते हैं, तो राधा रूपी गोपियां उन पर लाठियों से प्रहार करती हैं। पुरुषों को इन प्रहारों से बचते हुए महिलाओं पर रंग डालना होता है।
बरसाना, नंदगांव, कामां और डीग में लट्ठमार होली की परंपरा आज भी जीवंत है और यहाँ की संस्कृति को सुदृढ़ बनाती है। यह होली ब्रज संस्कृति की अनूठी झलक प्रस्तुत करती है। विदेशी सैलानियों के साथ-साथ स्थानीय और देशभर से आए पर्यटक भी इस होली में बड़े उत्साह से भाग लेते हैं।
2.पुष्कर की कपड़ाफाड़ होली
अजमेर के पुष्कर में होली का जश्न एक अलग ही अंदाज में मनाया जाता है। यहाँ की कपड़ाफाड़ होली काफी प्रसिद्ध है। इस आयोजन में सैकड़ों देशी-विदेशी पर्यटक होली का आनंद लेने पुष्कर पहुँचते हैं। कपड़ाफाड़ होली का आयोजन वराह घाट चौक पर किया जाता है। यहाँ आने वाले पर्यटक संगीत की धुन पर नाचते हुए रंग-बिरंगी गुलाल उड़ाते हैं और घंटों तक होली खेलते हैं।
इस आयोजन की खास बात यह है कि इसमें प्रत्येक पुरुष की शर्ट फाड़कर रस्सी पर टांग दी जाती है। जमीन से काफी ऊपर एक रस्सी बंधी होती है, जिस पर फटे हुए कपड़े फेंके जाते हैं। यदि कपड़ा रस्सी पर लटक जाता है, तो सभी लोग तालियाँ बजाते हैं, और यदि कपड़ा नीचे गिर जाता है, तो सभी हाय-हाय करते हैं।
3.उदयपुर में गोला-बारूद से खेली जाती है होली
उदयपुर के मेनार गांव में होली का जश्न एक अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। यहाँ होली के अगले दिन जमरा बीज के अवसर पर गोला-बारूद और तोपों के शोर के बीच यह उत्सव आयोजित किया जाता है, जो शौर्य और साहस की गाथा सुनाता है। ऐसा कहा जाता है कि महाराणा अमर सिंह के शासनकाल में मेनार गांव के पास मुगल सेनाओं की चौकी थी। जब ग्रामीणों को मुगल आक्रमण की सूचना मिली, तो उन्होंने सूझबूझ से एक रणनीति तैयार कर मुगलों का डटकर सामना किया। उसी वीरता और विजय की याद में यह अनूठा उत्सव शुरू किया गया।
इस दिन देर शाम, पूर्व रजवाड़ों के सैनिकों की पोशाक पहने ग्रामीण अपने-अपने घरों से निकलते हैं। तलवारें लहराते और बंदूकों से गोलियां दागते हुए, वे ओंकारेश्वर चौक पर एकत्र होते हैं, जहाँ तोपों की गूंज और भव्य आतिशबाजी की जाती है। अबीर-गुलाल से सजे रणबांकुरों का जोरदार स्वागत किया जाता है। देर रात तक आतिशबाजी का सिलसिला जारी रहता है।
4.डूंगरपुर में अंगारों पर चलने और पत्थरमार होली की अनोखी परंपरा
दक्षिणी राजस्थान के वागड़ अंचल में स्थित डूंगरपुर में होली का जश्न अनूठे अंदाज में मनाया जाता है। यहाँ होली का खुमार पूरे एक महीने तक लोगों पर छाया रहता है। डूंगरपुर जिले के कोकापुर गांव में होलिका दहन के बाद दहकते अंगारों पर नंगे पांव चलने की परंपरा निभाई जाती है।
डूंगरपुर के ही भीलूड़ा गांव में खूनी होली खेली जाती है, जो अपने खतरनाक पत्थरमार होली के रूप में प्रसिद्ध है। यह परंपरा पिछले 200 वर्षों से चली आ रही है। धुलंडी के दिन स्थानीय रघुनाथ मंदिर परिसर में भारी संख्या में लोग एकत्र होते हैं और दो टोलियों में बंटकर एक-दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं।
5.नाथद्वारा में दूध-दही की अनोखी होली
राजसमंद जिले के नाथद्वारा में होली से पहले दूध-दही की होली खेलने की परंपरा है। यहाँ स्थित कृष्ण स्वरूप श्रीनाथजी का भव्य मंदिर इस उत्सव का केंद्र होता है। इस अवसर पर विशाल महोत्सव का आयोजन किया जाता है। सुबह जल्दी श्रीनाथजी की प्रतिमा का पंचामृत से अभिषेक किया जाता है।
इसके बाद दूध-दही में केसर मिलाकर भगवान को भोग अर्पित किया जाता है, और फिर भक्तों के बीच दूध-दही की होली खेली जाती है। यह आयोजन नंद महोत्सव की तरह मनाया जाता है और श्रीनाथजी की अनन्य भक्ति का प्रतीक माना जाता है।
6.पंजाब से सटे जिलों में अनोखी ‘कोड़ामार होली’
पंजाब से सटे श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ में कोड़ामार होली खेलने की अनूठी परंपरा है। टोंक में भी रंगोत्सव के दौरान अलग-अलग परंपराएं देखने को मिलती हैं। यहां देवर-भाभी के बीच खेली जाने वाली कोड़ामार होली प्रसिद्ध है। इसमें देवर अपनी भाभी को रंगने की कोशिश करता है, और भाभी देवर की पीठ पर कोड़े बरसाती हैं।
इसके अलावा ढोल की थाप और डंके की चोट पर महिलाओं की टोलियां रंग-गुलाल उड़ाते हुए निकलती हैं। यह परंपरा न केवल रंगों के उत्सव के साथ पारिवारिक रिश्तों की मिठास को भी दर्शाती है।
7.शेखावाटी अंचल में चंग और गींदड़ की धूम
राजस्थान के शेखावाटी अंचल—सीकर, चूरू और झुंझुनूं—में होली का उत्सव पारंपरिक नृत्य चंग और गींदड़ के रंग में मनाया जाता है। यहाँ पुरुष चूड़ीदार पायजामा-कुर्ता या धोती-कुर्ता पहनते हैं, कमर में कमरबंद और पैरों में घुंघरू बांधकर नृत्य करते हैं। होली के दिनों में यहाँ चंग नृत्य के साथ पारंपरिक होली गीत गाए जाते हैं। होली से करीब पंद्रह दिन पहले ही गींदड़ का सिलसिला शुरू हो जाता है।
इस नृत्य में पुरुष चंग को एक हाथ से थामते हैं, दूसरे हाथ से कटरवे का ठेका और थपकियां देते हुए वृत्ताकार घेरे में सामूहिक नृत्य करते हैं। राजस्थान की यह होली परंपरा पूरे राज्य में काफी प्रसिद्ध है और पर्यटकों के लिए भी आकर्षण का केंद्र बनी रहती है।
8.भीलवाड़ा, बूंदी और बारां में भी अनूठी होली परंपराएं
राजस्थान के भीलवाड़ा, बूंदी और बारां जिलों में भी होली के त्योहार को अनोखे अंदाज में मनाया जाता है। यहाँ होली केवल रंगों का नहीं, बल्कि परंपराओं, लोकनाट्यों और विशेष आयोजनों का भी पर्व होता है। भीलवाड़ा में होली के बाद बादशाह की सवारी निकाली जाती है।
बूंदी जिले के नैनवां कस्बे में 150 साल से हर साल धुलंडी पर राजा मालदेव व रानी मालदेवकी का विवाह होता है। लोग दो टोली बनाते हैं, और फिर एक राजा मालदेव की बारात में शामिल होते हैं। वहीं, दूसरे रानी मालदेवकी के ब्याह की तैयारियों में जुटकर होली मनाते हैं।
बारां जिले के किशनगंज, शाहाबाद, मांगरोल क्षेत्र में सहरिया जाति का आदिवासी नृत्य खूब प्रसिद्ध है। किशनगंज कस्बे में फूलडोल लोकोत्सव मनाया जाता है, जिसमें कई झांकियां सजाई जाती हैं। सहरिया क्षेत्र के गांवों में होली के आठ दिन पहले से ही लोग रात-रात भर फाग गाते हैं। चौपालों में ग्रामीण परंपरागत वाद्य यंत्र बजाकर होली को विशेष रूप से मनाते हैं।
राजस्थान अपनी अनूठी संस्कृति और त्योहार मनाने के तरीकों के लिए प्रसिद्ध है, जिसे देखने के लिए दुनियाभर से बड़ी संख्या में पर्यटक आते हैं। अगर आप भी राजस्थान की अनूठी परंपराओं का अनुभव करना चाहते हैं, तो इस बार होली इन जगहों पर जरूर मनाएं।